शारीरिक शक्ति का ह्यस : शरीर में रोगों के उत्पन्न होने का तीसरा प्रमुख कारण रोगों से लड़ने वाली जीवनीशक्ति का अभाव होता है। दुर्बल अंगों और दुर्बल व्यक्तियों में ही प्राय: रोग उत्पन्न होते हैं और पनपते हैं। कमजोर और दुर्बल शरीर में ही प्राय: रोग उत्पन्न होते हैं। यदि शरीर कमजोर होता है तो शरीर अपने भीतर जमा हुए विजातीय द्रव्यों को शरीर से बाहर नहीं निकाल पाता है। इसके कारण उसका स्वभाव चिड़चिड़ा हो जाता है और भूख मर जाती है, नींद नहीं आती है, शरीर का विकास रुक जाता है तथा शरीर में एक न एक रोग हमेशा ही बना रहता है। शरीर में सभी प्रकार के रोगों के उत्पन्न होने का मूल कारण उसमें जीवनशक्ति की कमी होती है। जीवनशक्ति के नष्ट होने के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-
1. अपनी शारीरिक शक्ति से अधिक मेहनत के कारण शारीरिक क्षमता नष्ट होने लगती है और शरीर बिल्कुल कमजोर होकर रोगों का घर बन जाता है।
2. यदि व्यक्ति रात्रि में कार्य करते हैं तो इससे भी शरीर की जीवनीशक्ति नष्ट होती है।
3. किसी प्रकार मानसिक परेशानी तथा चिंता होने पर शारीरिक शक्ति नष्ट होती जाती है।
4. अप्राकृतिक औषधियों का सेवन करने से भी शरीर की जीवनदायनी शक्ति नष्ट होती है।
4. वंशानुगत संस्कार : रोगों के उत्पन्न होने का मुख्य कारण वंशानुगत होता है। यह एक प्राकृतिक नियम है कि यदि कोई माता-पिता कमजोर और दुर्बल हैं तो उनकी होने वाली सन्तान भी कमजोर और दुर्बल होगी क्योंकि जैसा बीज बोया जाता है वैसा ही फल हम काटते हैं। यदि माता-पिता के शरीर में किसी भी प्रकार के हानिकारक विजातीय द्रव्य अपनी प्रारिम्भक स्थिति में होते हैं तो ये द्रव्य उनके होने वाले बच्चे के शरीर में भी पहुंच सकते हैं।
5. मिथ्योपचार : शरीर में एकत्रित अनावश्यक मल ही रोगों का प्रमुख कारण होता है। इस सिद्धांत को मानने वाला कभी इस बात को स्वीकार नहीं करेगा कि उसके शरीर में बाहर से कोई विजातीय द्रव्य पहुंचकर रोग का रूप धारण कर ले। हैजा, प्लेग आदि रोगों से बचाव हेतु स्वस्थ शरीर में विषों के इंजेक्शनों का प्रयोग किया जाता है। यही मिथ्योपचार होता है। इसमें रोग को नष्ट करने के लिए रोगियों को बहुत ही तेज औषधियों का सेवन कराया जाता है जिससे विभिन्न प्रकार के बाहरी विष शरीर में पहुंचकर विष की मात्रा और रोग को बढ़ा देते हैं तथा रोग को पुराना करने में मदद करते हैं।
6. आकस्मिक दुर्घटना और बाहय चोट : किसी भी स्वस्थ व्यक्ति को अचानक चोट लगने से अथवा आकस्मिक दुर्घटना, त्वचा, मांस, शिरा, हड्डी आदि के टूटने-फूटने से अभिघातज रोगों की उत्पत्ति होती है। आप्रेशन करने की क्रिया भी इसी श्रेणी में आती है।
7. रोगोत्पादक जीवाणु : प्राकृतिक रूप से स्वस्थ और निर्मल शरीर में किसी भी रोग के जीवाणु प्रवेश नहीं करते हैं। परन्तु मल साफ न होने से व्यक्ति के शरीर में विभिन्न प्रकार के जीवाणु प्रवेश कर जाते हैं क्योंकि रोगों के उत्पन्न होने का प्रमुख कारण शरीर में एकत्रित मल ही होता है तथा निर्मलता से कीटाणु मर जाते हैं। इसलिए जीवाणु शरीर में रोग के उत्पन्न होने का कारण होते हैं। इस कारण उन्हें रोगोत्पादक जीवाणु कहा जाता है।
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