आयुर्वेद के अनुसार स्वास्थ्य
समदोषः समाग्निश्च समधातु मलक्रियाः ।
प्रसन्नात्मेन्द्रियमनाः स्वस्थः इत्यभिधीयते ॥
( जिस व्यक्ति के दोष (वात, कफ और पित्त समान हों, अग्नि सम हो, सात धातुयें भी सम हों, तथा मल भी सम हो, शरीर की सभी क्रियायें समान क्रिया करें, इसके अलावा मन, सभी इंद्रियाँ तथा आत्मा प्रसन्न हो, वह मनुस्य स्वस्थ कहलाता है । यहाँ 'सम' का अर्थ 'संतुलित'
न बहुत अधिक न बहुत कम है।
आयुर्वेद में स्वास्थ्य की अवस्था को प्रकृति और अस्वास्थ्य या रोग की अवस्था को विकृति कहा जाता है। चिकित्सक का कार्य रोगात्मक चक्र में हस्तक्षेप करके प्राकृतिक
सन्तुलन को कायम करना और उचित आहार और औषधि की सहायता से स्वास्थ्य प्रक्रिया को
दुबारा शुरू करना है। औषधि का कार्य खोए हुए सन्तुलन को फिर से प्राप्त करने के
लिए प्रकृति की सहायता करना है। आयुर्वेदिक मनीषियों के अनुसार उपचार स्वयं
प्रकृति से प्रभावित होता है, चिकित्सक और औषधि इस प्रक्रिया में सहायता-भर करते हैं।
स्वास्थ्य के नियम आधारभूत ब्रह्मांडीय एकता पर निर्भर है। ब्रह्मांड एक
सक्रिय इकाई है, जहाँ प्रत्येक वस्तु निरन्तर परिवर्तित होती रहती है; कुछ भी अकारण और अकस्मात् नहीं होता और प्रत्येक कार्य का प्रयोजन और उद्देश्य
हुआ करता है। स्वास्थ्य को व्यक्ति के स्व और उसके परिवेश से तालमेल के रूप में
परिभाषित किया जा सकता है। विकृति या रोग होने का कारण व्यक्ति के स्व का
ब्रह्मांड के नियमों से ताल-मेल न होना है।
आयुर्वेद का कर्तव्य है, देह का प्राकृतिक सन्तुलन बनाए रखना और शेष
विश्व से उसका ताल-मेल बनाना। रोग की अवस्था में,
इसका कर्तव्य उपतन्त्रों के विकास को रोकने के लिए शीघ्र हस्तक्षेप करना और
देह के सन्तुलन को पुन:
संचित करना है। प्रारम्भिक अवस्था में रोग
सम्बन्धी तत्त्व अस्थायी होते हैं और साधारण अभ्यास से प्राकृतिक
सन्तुलन को फिर से कायम किया जा सकता है।
यह सम्भव है कि आप स्वयं को स्वस्थ समझते हों, क्योंकि आपका शारीरिक
रचनातन्त्र ठीक ढंग से कार्य करता है, फिर भी आप विकृति की अवस्था
में हो सकते हैं अगर आप असन्तुष्ट हों, शीघ्र क्रोधित हो जाते हों, चिड़चिड़ापन या बेचैनी महसूस करते हों, गहरी नींद न ले पाते हों, आसानी से फारिग न हो पाते हों, उबासियाँ बहुत आती हों, या लगातार हिचकियाँ आती हो, इत्यादि।
स्वस्थ व्यक्ति के शरीर में पंच महाभूत, आयु, बल एवं प्रकृति के अनुसार योग्य मात्रा में रहते हैं। इससे पाचन क्रिया ठीक
प्रकार से कार्य करती है। आहार का पाचन होता है और रस, रक्त, माँस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र इन सातों धातुओं का निर्माण ठीक प्रकार से होता है। इससे मल, मूत्र और स्वेद का निर्हरण
भी ठीक प्रकार से होता है।
Kalpant Healing Center
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Anand Ji)
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