Monday, 26 February 2018

रोग और रोगी की चिकित्सा



रोग और रोगी की चिकित्सा- किसी रोग की प्राकृतिक चिकित्सा करने के पूर्व प्रत्येक सम्बंधित व्यक्ति को प्राकृतिक चिकित्सा के बारे में जानकारी होनी चाहिए। यदि रोगी उसका ईमानदारी से पालन करे तो रोग को दूर होने में देर नहीं लगती है।



विशेष : प्राकृतिक चिकित्सा ``जीवन विज्ञान`` होती है। जीवन जीने की एक विशेष कला होती है जिसका ज्ञान रखने वाले को बहुत जल्द इसका लाभ मिलता है। जो लोग इस कला के अभ्यास के बिना ही इस चिकित्सा से लाभ उठाना चाहते हैं, उन्हें अधिकतर निराशा ही हाथ लगती है। ईश्वर की प्रार्थना, संयम, सदाचार, मानसिक शक्ति का उपयोग, आवश्यकता अनुसार विश्राम, प्रसन्नता, मनोरंजन तथा गहरी नींद के बिना कोई भी रोगी ठीक नहीं हो सकता है बल्कि उसका रोग बढ़ जाता है। इसलिए उपर्युक्त नियमों को प्राकृतिक चिकित्सा का ही एक अंग समझकर पालन करना चाहिए।



1. ईश्वर की प्रार्थना : पंचतत्व समन्वित प्राकृतिक चिकित्सा- विज्ञान का मूलाधार तत्व है। प्राकृतिक के मूल साधन पंचतत्व- प्रकाश, वायु, जल, अग्नि और पृथ्वी हैं। जिनकी ईश्वरी तत्व के बिना अपनी कोई सत्ता नहीं है।



2. संयम : रोगों को दूर करने में संयम और परहेज प्रमुख भूमिका निभाता है। असंयम से जिस प्रकार हमारा शरीर रोगों से ग्रस्त हो जाता है। उसी प्रकार रोगों से ग्रस्त होने पर यदि यदि संयम पूर्वक अपना जीवन व्यतीत करें तो रोगों से शीघ्र ही छुटकारा मिल जाता है। इसलिए रोगियों को शीघ्र ही रोगमुक्त होने के लिए संयम का कठोरतापूर्वकर पालन करना चाहिए। इससे शरीर की जीवनीशक्ति को ताकत मिलती है और शरीर शीघ्र ही रोगों से मुक्त हो जाता है। एक कहावत प्रसिद्ध है कि `एक परहेज हजार दवा` अर्थात चिकित्सा का मंहगा से मंहगा इलाज भी रोगों को उस समय तक ठीक नहीं कर पाता है जब तक हम परहेज नहीं करते हैं। लगभग 95 प्रतिशत रोग केवल असंयम के कारण ही असाध्य बन जाते हैं।



3. सदाचरण : सदाचरण से हमारा शरीर और मन दोनों ही निर्मल और पवित्र होते हैं। सदाचार का बीजारोपण सद्विचारों के क्षेत्र में होता है। सदाचारी व्यक्ति बहुत ही कम रोगों से ग्रस्त होते हैं। इसके विपरीत जो व्यक्ति दुराचार को अपनाये रहता है। यदि वह बीमार होता है तो विश्व की कोई भी चिकित्सा पद्धति या शक्ति उसे ठीक नहीं कर सकती है। बेबस हो जाना शरीर के अंदर एक शत्रु के पालन के समान होता है जो हमारे शरीर को अंदर ही अंदर घुन की भांति नष्ट करने में लगा होता है।



4. मन:शक्ति: रोगावस्था में रोगी की जिस प्रकार की भावना होती है इसके अनुरूप उसका रोग दूर होता है या बिगड़ता है क्योंकि मन की शक्ति अपरम्पार होती है। हमारे शरीर के मनोभाव शरीर में रोगोत्पत्ति के प्रमुख कारण होते हैं तथा वे ही एक रोग के लिए औषधि का भी कार्य करते हैं। वर्तमान समय में केवल आत्मनिर्देशों द्वारा ही असाध्य से असाध्य रोगों का उपचार किया जा सकता है जिसे ``मानसिक चिकित्सा`` के नाम से जाना जाता है। अत: प्रतिदिन रोगी को सुबह श्रद्धा और सच्चे मन से प्रार्थना करनी चाहिए कि उसे रोग से छुटकारा मिल जाए। ऐसा करने से कुछ ही दिनों में उसका रोग अवश्य ही नष्ट हो जाता है।



5. विश्राम : जब व्यक्ति किसी रोग से पीड़ित हो तो उसे तन और मन दोनों से पर्याप्त विश्राम करना चाहिए। जब शरीर में रोगों का प्रकोप होता है तो शरीर की जीवनीशक्ति रोग के विकारों को नष्ट करने में लग जाती है। इसलिए उससे अन्य कोई काम नहीं लेना चाहिए।



6. प्रसन्नता : रोगी व्यक्ति यदि खिन्नता को छोड़कर प्रसन्नता का आश्रय लेने लगे तो- उसी समय से रोग की दशा में सुधार आने लगता है। हमारे शरीर में अनेकों स्रावी ग्रंथियां होती हैं। जिनका स्राव शरीर के कार्य संचालन पर बहुत ही बड़ा प्रभाव डालता है। सामान्य अवस्था में इन ग्रंथियों से जो स्राव होता है, उनसे हमारे शरीर की सामान्य क्रियाएं संचालित होती रहती हैं किन्तु जब हम प्रसन्न होते हैं तो इन ग्रंथियों के स्राव में एक ऐसी अलौलिक विद्युतशक्ति का संचार हो जाता है। जिससे हमारे शरीर की समस्त क्रियाएं व्यवस्थित रूप से होने लगती हैं तथा शरीर के कोषों का लचीलापन जो उत्तम स्वास्थ्य की निशानी होता है पुन: स्थापित हो जाता है।



7. मनोरंजन : स्वस्थ लोगों की तुलना में रोगियों को मनोरंजन के साधनों की अधिक आवश्यकता होती है। मनोरंजन करने से रोगी का मन बहल जाता है। इसका उसके स्वास्थ्य पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है। इसलिए किसी भी रोग से पीड़ित व्यक्तियों का मनोरंजन करना चाहिए जिससे उनका स्वास्थ्य धीरे-धीरे ठीक हो जाता है।



8. गहरी नींद : अनिद्रा रोगी व्यक्तियों के लिए हानिकारक होती है। यदि किसी रोग से पीड़ित व्यक्ति को अच्छी नींद आती है तो उसका रोग जल्द ही ठीक हो जाता है। निद्रा सभी रोगों में लाभदायक सिद्ध होती है। इसलिए निद्रा को सभी रोगों की प्राकृतिक चिकित्सा माना जाता है। इसमें रोगी को आहार की जरूरत ही नहीं होती है। परन्तु रोगी के लिए नींद आवश्यकता ही नहीं बल्कि उसके लिए एक अच्छी औषधि भी होती है। इसलिए रोगी व्यक्तियों को प्रतिदिन कम से कम 8 से 10 घंटे की नींद अवश्य लेनी चाहिए।
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Dr J.P Verma (Swami Jagteswer Anand Ji)
(Md-Acu, BPT, C.Y.Ed, Reiki Grand Master, NDDY & Md Spiritual Healing)
Physiotherapy, Acupressure, Naturopathy, Yoga, Pranayam, Meditation, Reiki, Spiritual & Cosmic Healing, (Treatment & Training Center)
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रोगों के प्रकार और उनका वर्गीकरण



रोगों के प्रकार और उनका वर्गीकरण :

विद्वानों ने स्वास्थ्य की दृष्टि से हमारे शरीर के रोगों के विभिन्न पहलुओं को निर्धारित किया है जो निम्न हैं-

1. आध्यात्मिक।

2. मानसिक।

3. शारीरिक।

वही व्यक्ति पूरी तरह से स्वस्थ होता है जो मन, आत्मा और शरीर तीनों से स्वस्थ होता है। यदि कोई भी व्यक्ति इन तीनों में से किसी की उपेक्षा रखता है तो वह कभी भी पूर्ण रूप से स्वस्थ नहीं रह सकता है। मन, आत्मा और शरीर के आधार पर ही रोग भी तीन प्रकार (शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक) के होते हैं।

1. आध्यात्मिक रोग : शरीर, मन और आत्मा का ऐसा घनिष्ठ सम्बंध होता है कि जो लोग शारीरिक रूप से स्वस्थ होंगे। उनकी आत्मा भी स्वस्थ होगी। इस संसार को बनाने वाले ईश्वर में अविश्वास करना ही सबसे बड़ा आध्यात्मिक रोग होता है। असत्य बोलना, अज्ञानता आदि रोग भी इसी के अर्न्तगत आते हैं।



2. मानसिक रोग : मानसिक रोग हमारे स्वास्थ्य की दृष्टि से शारीरिक रोगों से भी अधिक खतरनाक और अनिष्टकारी होते हैं। मानसिक रोगों के उत्पन्न होने का कारण विभिन्न प्रकार की छोटी-छोटी सी बातें होती हैं। यद्यपि हम इन छोटी-छोटी बातों को अपने विवेक से सुलझाकर मानसिक रोगों से आसानी से बच सकते हैं। मानसिक रोगों के अन्तर्गत घृणा, प्रतिहिंसा, आलस्य, लोभ, चिंता, अहंकार, निराशा, ईर्ष्या, अज्ञानता, भय, कामलिप्सा, असहिष्णुता, अविश्वास, स्वार्थपरता मानसिक उन्माद और वहम आदि होते हैं।

मानसिक रोग होने के कारण : वैसे तो देखने में मानसिक रोग, शारीरिक रोगों से अलग प्रतीत होते हैं किन्तु उनके कारणों में भिन्नता नहीं होती है। इसके उत्पन्न होने का एकमात्र कारण भी शरीर में उपस्थिति विजातीय द्रव्य होते हैं। जब शरीर में विजातीय द्रव अधिक बढ़ जाता है तो वह पीठ की ओर से रीढ़ की हडि्डयों से होता हुआ मस्तिष्क की कोमल ज्ञानेन्द्रियों को प्रभावित करता है। शरीर की जीवनशक्ति के ह्यास और अप्राकृतिक जीवन के फलस्वरूप पाचनशक्ति के खराब होने से विजातीय द्रव्य धीरे-धीरे शरीर में एकत्र होकर मानसिक रोगों को उत्पन्न कर देते हैं। इन रोगों का होना अथवा न होना विजातीय द्रव्य की वृद्धि और मात्रा पर निर्भर करता है। पृष्ठ भाग में विजातीय द्रव्य का भार बढ़ जाने से आमाशय की नाड़ियों, सुषुम्ना आदि पर अधिक प्रभाव पड़ता है जो मानसिक रोगों का प्रमुख कारण होता है। जो व्यक्ति संयमी और सात्विक विचार रखने वाले होते हैं उन्हें मानसिक रोग कम होते हैं।

मानसिक रोग अथवा मनोविकार शारीरिक स्नायु के मार्ग को अवरुद्ध करके, तन्तुओं को नष्ट करके जीवन शक्ति की क्रिया में बाधक होकर मल को शरीर से बाहर निकलने से रोक देते हैं। इससे शारीरिक रोग अधिक हानिकारक हो जाते हैं। धैर्य का अभाव होना, क्रोधी और चिड़चिडे़ स्वभाव से बुखार बढ़ता है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार शरीर में खून की कमी, हृदय रोग, हिस्टीरिया, स्नायु की दुर्बलता, वीर्य दोष यहां तक कि लकवा और टी.बी. जैसी खतरनाक बीमारियों के उत्पन्न होने का मूल कारण मानसिक विकार ही होते हैं। यह एक सच्चाई है कि हमारे शरीर के लगभग 90 प्रतिशत रोग केवल मानसिक विकार के कारण होते हैं। कुछ मानसिक रोग निम्नलिखित हैं।



1. भय : भय एक मानसिक रोग है। भय का आघात स्वास्थ्य के लिए बहुत ही हानिकारक होता है। भय से पीड़ित व्यक्ति की कभी-कभी मृत्यु भी हो जाती है। जब किसी के शरीर में भय की भावना उत्पन्न होती है तो उसका शरीर विष से भर जाता है तथा हृदय की धड़कन बढ़ जाती है। इससे आंखों के सामने अंधेरा छा जाता है और कभी-कभी आंखों की रोशनी हमेशा के लिए समाप्त हो जाती है। भय से पीड़ित व्यक्ति की भूख और प्यास समाप्त हो जाती है तथा दस्त आदि के साथ-साथ विभिन्न शारीरिक विकार हो जाते हैं। भय से व्याकुल रोगी थर-थर कांपते हुए निर्जीव सा हो जाता है।



2. क्रोध : क्रोध भी एक हानिकारक मानसिक रोग है। इसके विभिन्न रूप होते हैं। जब किसी व्यक्ति को क्रोध आता है तो उसके शरीर में तीव्र विष की उत्पत्ति होती है। क्रोध खून को जला देता है तथा शरीर की सभी ग्रंथियां `एड्रिनलीन` नामक एक विषैला रासायनिक पदार्थ उत्पन्न करती हैं जो रक्त में मिल जाती हैं। यदि किसी व्यक्ति को अधिक क्रोध आता है तो क्रोध के कारण उसकी पाचनशक्ति कमजोर हो जाती है तथा भोजन के पाचन में सहायक रस विष में परिवर्तित हो जाता है।



3. चिंता : हमें किसी भी समस्या के आने पर विचलित नहीं होना चाहिए। यदि हम किसी बात को लेकर चिंतित होते हैं तो इसका हमारे शरीर बहुत अधिक बुरा प्रभाव पड़ता है। चिंता करना शारीरिक स्वास्थ्य और सुंदरता का सबसे बड़ी दुश्मन मानी जाती है। किसी बात का भय होने से चिंता उत्पन्न हो जाती है। चिंता करने से भी क्रोध के समान ही हमारे शरीर के रक्त में रासायनिक परिवर्तन होता है जिसके कारण शरीर का रक्त अशुद्ध होकर सूखने लगता है। जिसके परिणामस्वरूप शरीर सूखकर कांटा हो जाता है। शरीर की त्वचा की चमक समाप्त हो जाती है, होंठों का रंग फीका पड़ जाता है, नाक गीली हो जाती है और गाल भी पिचक जाते हैं। ऐसे रोगियों की पाचन क्रिया शीघ्र ही प्रभावित हो जाती है जिसके कारण व्यक्ति टी.बी. से ग्रस्त हो जाता है। चिंता ग्रस्त रोगी को नींद नहीं आती है और उसे अपना जीवन भार के समान लगने लगता है।



4. ईर्ष्या-द्वेष : किसी से भी ईर्ष्या-द्वेष रखना मानसिक रोगों के अन्तर्गत आता है। मनोवैज्ञानिकों और आधुनिक औषधि विज्ञान ने अपनी खोजों के आधार पर यह सिद्ध कर दिया है कि ईर्ष्या-द्वेष शरीर के लिए उतना हानिकारक हो सकता है जितना की तपेदिक और हृदय रोग। ईर्ष्या से हमारे शरीर के रक्त में विष का संचार हो जाता है। जब ईर्ष्या और द्वेष अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच जाते हैं तो इससे पागलपन उत्पन्न हो जाता है।



मानसिक रोगों से बचाव : मानसिक रोग बहुत ही हठीले और दु:साध्य होते हैं। परन्तु मानसिक रोग असाध्य नहीं होते हैं। परन्तु यदि आत्मबल कम हो, जीवनीशक्ति मर गई हो और शरीर में विजातीय द्रव्य का स्थान ऐसा हो कि प्राकृतिक उपचारों द्वारा उसका निकाला जाना सम्भव न हो तो ऐसे रोगों को असाध्य ही समझना चाहिए। मानसिक रोगों को मिटाने में मानसोपचार में अधिक सहायता मिलती है। मानसिक रोगों को रोकने में निम्नलिखित नियमों का पालन करने से सहायता मिलती है।

1. मन की शांति और अशांति के कारण की ओर से मन को हटा लेने का प्रयत्न करना चाहिए और उसके बारे में सोचना और विचार करना बिल्कुल ही बंद कर देना चाहिए।

2. हमेशा दूसरों के अधिकारों का सम्मान करना चाहिए क्योंकि हम किसी से अपने अधिकार का सम्मान तभी करा सकते हैं जब हम उसके अधिकारों का सम्मान स्वयं करेंगे।

3. हमें `नेकी कर और दरिया में डाल` की कहावत को चरितार्थ करते हुए दूसरों पर उपकार करते रहना चाहिए। यदि उन उपकारों का बदला न मिले तो हमें दु:खी भी नहीं होना चाहिए।

4. बात-बात पर उत्तेजित होना, उग्रता दिखाना, बहस करना, किसी को डराना और धमकाना, अपनी बात को सर्वोपरि रखना और अपनी इच्छाओं की पूर्ति की आशा करना आदि अनेक मानसिक कमजोरियां होती हैं जो मनुष्य को अंदर ही अंदर खा जाती हैं।

5. जो मानसिक कष्ट, परेशानी, अड़चनें और बाधाएं उपस्थिति होती हैं, वे मात्र हमारे साथ ही नहीं वरन अन्य सभी के साथ भी हो सकती हैं। ऐसे विचारों से आत्मसंतोष की प्राप्ति होती है।

6. संसार के सभी कार्यों को भगवान की इच्छा समझते हुए अपने को निमित्त मात्र समझना चाहिए तथा ईश्वर के प्रति आत्मसमर्पण की भावना को ही अपना रक्षा कवच समझना चाहिए।

7. मन के अधिक चंचल हो जाने पर तेज आवाज से अच्छी पुस्तकों को पढ़ना चाहिए तथा भगवान का नाम लेकर ठंडा पानी पीना चाहिए अथवा उस स्थान से हटकर कहीं दूर चले जाना चाहिए।

8. मानसिक विकार होने पर अपने अपने मन से उलझना नहीं चाहिए तथा मन को अपना गुलाम और आज्ञाकारी बनाने का प्रयत्न करना चाहिए जोकि उसका वास्तविक स्वरूप है।

9. हमें अपने आप में आत्मनिर्भरता, आत्म सम्मान और आत्मबल हमेशा भरते रहना चाहिए।



3. शारीरिक रोगों का वर्गीकरण : हमारे शरीर में विभिन्न प्रकार के विकार होते हैं जिनके रूप और लक्षण अलग-अलग होते हैं इनका विभाजन आयुर्वेद में चार श्रेणियों में किया गया है।



1. शरीर में विजातीय द्रव्यों के कारण जो रोग होते हैं वे शारीरिक रोग के अन्तर्गत आते हैं जैसे बुखार आदि।

2. अभिघात से जो पीड़ाएं होती हैं, उन्हें आगन्तुक रोग कहते हैं जैसे पेड़ से गिरना दुर्घटना आदि।

3. क्रोध, शोक, भय आदि रोगों को निमित्तक मानसिक रोग कहते हैं।

4. भूख, प्यास, बूढ़ा होना तथा मृत्यु को प्राप्त होना `स्वाभाविक` रोग के अन्तर्गत आते हैं।

हमारे शरीर के आंन्तरिक भाग में विजातीय द्रव्यों की उपस्थिति के परिणामस्वरूप जितने भी प्रकार के रोग होते हैं उन्हें दो भागों में विभाजित किया जा सकता है।



रोगों से लाभ : इस विश्व में बहुत बड़ी संख्या ऐसे मनुष्यों की है, जिनकी यह एक मात्र धारणा नहीं बल्कि पूरा विश्वास है कि रोग हमारे दोस्त के समान होते हैं।



यहीं नहीं बल्कि कुछ लोगों का विचार तो यहां तक है रोग का होना मृत्यु का पेशखेमा होती है, किन्तु वास्तव में बात ऐसी नहीं है, रोग तो प्रकृति और माता का शुभाशीष और वरदान है अर्थात बीमार पड़ना हमारे शरीर के लिए ईश्वर का बड़ा वरदान है। वे व्यक्ति बहुत ही भाग्यशाली होते हैं जिनके शरीर में रोगों का आगमन होता है क्योंकि रोगों के आने से शरीर का संचित दूषित मल (जोकि विष बन चुका होता है) नष्ट हो जाता है। रोग हमारे शरीर के लिए सुधारक और दोस्त होते हैं न कि दुश्मन। रोग उत्पन्न होकर हमारे के किसी भाग या अंग के कमजोर होने को इंगित करता है कि इस भाग में विष एकत्र हो गया है। इसकी सफाई करनी चाहिए। हम जितनी शीघ्रता से रोग की चेतावनी पर ध्यान देंगे उतनी ही शीघ्र हमारा शरीर निरोगी हो जाता है। जिसके शरीर में यह चेतावनी नहीं मिलती है उनके शरीर की जीवनीशक्ति क्षीण होती जाती है।
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शारीरिक शक्ति का ह्यस



शारीरिक शक्ति का ह्यस : शरीर में रोगों के उत्पन्न होने का तीसरा प्रमुख कारण रोगों से लड़ने वाली जीवनीशक्ति का अभाव होता है। दुर्बल अंगों और दुर्बल व्यक्तियों में ही प्राय: रोग उत्पन्न होते हैं और पनपते हैं। कमजोर और दुर्बल शरीर में ही प्राय: रोग उत्पन्न होते हैं। यदि शरीर कमजोर होता है तो शरीर अपने भीतर जमा हुए विजातीय द्रव्यों को शरीर से बाहर नहीं निकाल पाता है। इसके कारण उसका स्वभाव चिड़चिड़ा हो जाता है और भूख मर जाती है, नींद नहीं आती है, शरीर का विकास रुक जाता है तथा शरीर में एक न एक रोग हमेशा ही बना रहता है। शरीर में सभी प्रकार के रोगों के उत्पन्न होने का मूल कारण उसमें जीवनशक्ति की कमी होती है। जीवनशक्ति के नष्ट होने के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-

1. अपनी शारीरिक शक्ति से अधिक मेहनत के कारण शारीरिक क्षमता नष्ट होने लगती है और शरीर बिल्कुल कमजोर होकर रोगों का घर बन जाता है।

2. यदि व्यक्ति रात्रि में कार्य करते हैं तो इससे भी शरीर की जीवनीशक्ति नष्ट होती है।

3. किसी प्रकार मानसिक परेशानी तथा चिंता होने पर शारीरिक शक्ति नष्ट होती जाती है।

4. अप्राकृतिक औषधियों का सेवन करने से भी शरीर की जीवनदायनी शक्ति नष्ट होती है।



4. वंशानुगत संस्कार : रोगों के उत्पन्न होने का मुख्य कारण वंशानुगत होता है। यह एक प्राकृतिक नियम है कि यदि कोई माता-पिता कमजोर और दुर्बल हैं तो उनकी होने वाली सन्तान भी कमजोर और दुर्बल होगी क्योंकि जैसा बीज बोया जाता है वैसा ही फल हम काटते हैं। यदि माता-पिता के शरीर में किसी भी प्रकार के हानिकारक विजातीय द्रव्य अपनी प्रारिम्भक स्थिति में होते हैं तो ये द्रव्य उनके होने वाले बच्चे के शरीर में भी पहुंच सकते हैं।



5. मिथ्योपचार : शरीर में एकत्रित अनावश्यक मल ही रोगों का प्रमुख कारण होता है। इस सिद्धांत को मानने वाला कभी इस बात को स्वीकार नहीं करेगा कि उसके शरीर में बाहर से कोई विजातीय द्रव्य पहुंचकर रोग का रूप धारण कर ले। हैजा, प्लेग आदि रोगों से बचाव हेतु स्वस्थ शरीर में विषों के इंजेक्शनों का प्रयोग किया जाता है। यही मिथ्योपचार होता है। इसमें रोग को नष्ट करने के लिए रोगियों को बहुत ही तेज औषधियों का सेवन कराया जाता है जिससे विभिन्न प्रकार के बाहरी विष शरीर में पहुंचकर विष की मात्रा और रोग को बढ़ा देते हैं तथा रोग को पुराना करने में मदद करते हैं।



6. आकस्मिक दुर्घटना और बाहय चोट : किसी भी स्वस्थ व्यक्ति को अचानक चोट लगने से अथवा आकस्मिक दुर्घटना, त्वचा, मांस, शिरा, हड्डी आदि के टूटने-फूटने से अभिघातज रोगों की उत्पत्ति होती है। आप्रेशन करने की क्रिया भी इसी श्रेणी में आती है।



7. रोगोत्पादक जीवाणु : प्राकृतिक रूप से स्वस्थ और निर्मल शरीर में किसी भी रोग के जीवाणु प्रवेश नहीं करते हैं। परन्तु मल साफ न होने से व्यक्ति के शरीर में विभिन्न प्रकार के जीवाणु प्रवेश कर जाते हैं क्योंकि रोगों के उत्पन्न होने का प्रमुख कारण शरीर में एकत्रित मल ही होता है तथा निर्मलता से कीटाणु मर जाते हैं। इसलिए जीवाणु शरीर में रोग के उत्पन्न होने का कारण होते हैं। इस कारण उन्हें रोगोत्पादक जीवाणु कहा जाता है।

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वंशानुगत रोग

वंशानुगत रोगों-: कोई भी रोग बाजार में नहीं मिलता। पूर्वार्जित कर्मो, आकस्मिक दुर्घटनाओं अथवा जन्मजात और वंशानुगत रोगों को छोड़ प्रायः अन्य सभी रोगों के लिए बाल्यकाल के पश्चात् रोगी स्वयं ही जिम्मेदार होता है। बाल्यकाल ओर गर्भावस्था में तो जीवन माता के आश्रित होता है। हमारे शरीर के सभी अंगों, उपांगों अन्तःश्रावी ग्रन्थियों, इन्द्रियों आदि का 99 प्रतिशत निर्माण तो बीज रूप में गर्भावस्था में ही हो जाता है। जन्म के पश्चात् तो उसमें मात्र विकास अथवा फैलाव ही होता है। अच्छे फल की प्राप्ति के लिए बीज का अच्छा होना अनिवार्य है। रोगी व कमजोर माता पिता की सन्तान भी रोगी व कमजोर होती है। यह एक प्राकर्तिक नियम है की जेसा बीज वैसा फल, गर्भाधान के समय से ही रज ओर वीर्ये में माता-पिता के दोषों का बीज पनपने लगता है। अतः बच्चे के स्वास्थ्य हेतु विशेष रूप से माता-पिता ही जिम्मेदार होते है। वंशानुगत और जन्मजात रोगों में माता-पिता द्वारा गर्भकाल में रखी गई असावधानियाँ, असंयम, अविवेक एवं उपेक्षावृत्ति ही मूल कारण होते हैं। खेती करने वाला साधारण किसान भी अच्छी फसल प्राप्त करने के लिए बीज बोने से लेकर फसल प्राप्त होने तक कितनी सजगता, सावधानी और देखरेख करता है, पुरुषार्थ करता है, तो ही उसे अपने परिश्रम का उचित फल मिलता है। तब मनुष्य जैसे व्यक्तित्व के निर्माण के प्रति माता-पिता असजग, बेखबर लापरवाह रहें, अविवेकपूर्ण आचरण करें तो वे अपने कर्तव्यो के प्रति ईमानदार नहीं कहे जा सकते? उसका दुष्परिणाम होता है। अशक्त, कमजोर, दुर्बल, रोगग्रस्त, विकलांग सन्तान। माँ के पेट में बच्चा अधिकांशतः सोया रहता है परन्तु माँ के आवेग अथवा अन्य कारणों से यदि वह जागृत हो जाता है तो उस समय होने वाला बच्चे का विकास अपूर्ण होता है। काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ, अहंकार, इर्ष्या, आदि की अवस्था में माता पिता द्वारा किया गया गर्भधान विष के समान होता है। ओर वंशानुगत रोंगों का कारण बनता है
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प्रतिरोधक क्षमता

प्रतिरोधक क्षमता : सर्दियों  में  होने  वाली  छोटी मोटी  बीमारियां  जैसे  जुकाम ,  खांसी  उन  लोगों को ज्यादा तंग करती हैंजिनकी प्रतिरोधक शक्ति (इम्यूनिटी) कमजोर हो गई है। ऐसे लोगों को चाहिए कि  बीमारियों  के पीछे लट्ठलेकर भागने के बजाय वे अपने शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को  बेहतर  बनाएं। रोग प्रतिरोधक क्षमता विकसित होगी तो  सर्दी,  जुखाम, खांसी  तो भूल  ही  जाइए , कई  बड़ी बीमारियों और इंफेक्शंस से भी शरीर खुद ब खुद  अपना  बचाव  कर  लेगा।

शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता (इम्यूनिटी) कोसमझने के लिए हमएक मरे हुए इंसान का उदाहरण लेंगे। जब कोई शख्स मरताहै, तो कुछ ही  समय  में  तमामबैक्टीरिया,  माइक्रोब्स, वायरस और पैरासाइट्स शरीर पर हमला कर देते हैं और उसे सड़ाना, गलाना शुरू कर देते है।
अगर कुछ दिनों के लिए शरीर को छोड़ दिया जाए, तो मृत शरीर में  केवल  कंकाल  का ढांचा भर बचा रहेगा, लेकिन जिंदा आदमी के साथ कभी ऐसा  नहीं  होता।  वजह यह है  कि जिंदा लोगों में रोग प्रतिरोधक तंत्र (इम्यून सिस्टम) नाम का एक ऐसा मेकनिजम  होता है,  जो इन बैक्टीरिया, वायरस और माइक्रोब्स को शरीर से दूर रखता है। इंसान के मरते ही उसका इम्यून  सिस्टम भी खत्म हो जाता है और शरीर पर  हमला करने की ताक में बैठे माइक्रोब्स शरीरको अपनी गिरफ्त में ले लेते हैं। यानी हमारे शरीर के भीतर एक प्रोटेक्शन मेकनिजम है, जो शरीर की तमाम रोगों से सुरक्षा करता है। इसे ही शरीर की रोग प्रतिरोधक  क्षमता कहते हैं।

यह कैसे काम करता है-: वातावरण में मौजूद तमाम बैक्टीरिया और वायरस को हम सांस के जरिये रोजाना अंदर लेते रहते हैं, लेकिन ये  बैक्टीरिया हमें नुकसान नहीं पहुंचाते। क्यों ? क्योंकि हमारा प्रतिरोधक
तंत्र इनसे हरदम लड़ता रहता है और इन्हेंपस्त करता रहता है। लेकिन कई बार जब इन बाहरी कीटाणुओं की ताकत बढ़ जाती है तो येशरीर के प्रतिरोधकतंत्र को बेध जाते हैं। नतीजा होता है, गला खराब होना, जुकाम और ज्यादा तेज हमला हो गया तो कभी-कभी फ्लूया  बुखार  भी। सर्दी,  जुकाम इस बात का संकेत हैं कि आपका प्रतिरोधक तंत्र कीटाणुओं को रोक पाने में नाकामयाब हो गया। ओर कुछ दिन में आप ठीक हो जाते हैं।  इसका  मतलब  है कि  तंत्र ने फिर से जोर लगाया औरकीटाणुओं को हरा दिया। अगर प्रतिरोधक तंत्र ने दोबारा जोर न लगायाहोता तो इंसान को जुकाम, सर्दी से कभी राहत ही नहीं मिलती। इसी तरह कुछ  लोगों को किसी  खास  चीज से एलर्जी होती है और कुछ को उस चीज से नहीं होती।   इसकी  वजह यह है कि जिस शख्स को एलर्जी हो रही है, उसका प्रतिरोधक तंत्र उस चीज पर रिऐक्शन  कर रहा है,जबकि दूसरों का तंत्र उसी चीज पर सामान्य व्यवहार करता है।इसी तरह डायबीटीज में भी प्रतिरोधक तंत्र पैनक्रियाज में मौजूद सेल्स को गलत तरीके से मारने लगता है। ज्यादातर  लोगों में बीमारियों की मुख्य वजह वायरल  और बैक्टीरियल इंफेक्शन होता है।  इनकी  वजह  से खांसी - जुकाम से लेकर खसरा, मलेरिया और एड्स जैसे रोग हो सकते हैं।  इम्यून  सिस्टमइन   इंफेक्शन से शरीर की रक्षा करने का काम ही करता है।

इम्यूनिटी बढ़ाने के तरीके

1. खानपान-: रोग प्रतिरोधक क्षमता के बारे में सबसे खास बात यह है कि इसका निर्माण शरीर खुद कर लेता है। ऐसा नहीं हैकि आपने बाहर से कोई चीज खाया और उसने जाकर सीधे आपकी प्रतिरोधक
क्षमता में इजाफा कर दिया।इसलिए ऐसी सभी चीजें जो सेहतमंद खाने में आती हैं, उन्हें लेना चाहिए। इनकी मदद से शरीर इस काबिल बनजाता है कि वह खुद अपनी प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर सके। अगर खानपान सही है तो शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए किसी  दवा या अतिरिक्त कोशिश करनेकी जरूरत नहीं है। आयुर्वेद के मुताबिक, कोई भी खाना जो आपके ओज में वृद्धि करता है रोग प्रतिरोधक क्षमताबढ़ाने में मददगार है। जो खाना आब
बढ़ाता है, वह नुकसानदायक है। ओज खाने के पूरी तरह से पच जाने के बाद बनने  वाली  कोई चीज है और इसी से अच्छी सेहत और रोग प्रतिरोधक क्षमता का विकास होता है। पचने में मुश्किल खाना खाने के बाद शरीर में आब का निर्माण होता है जो शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को कम करता है।
>खानपान में सबसे ज्यादा ध्यान इस बात का रखें कि भूलकर भी वातावरण  की  प्रकृति  के  खिलाफ  न जाएं।  मसलन अभी सर्दियां हैं तो आइसक्रीम खाने से परहेज करना चाहिए।

>बाजार में मिलने वाले फूड सप्लिमेंट्स का फायदा उन लोगों के लिए है, जिनकी खानपान की आदतें अजीबसीहैं। मसलन जो लोग खानेमें सलाद नहीं लेते, वक्त पर खाना नहीं खाते, गरिष्ठऔर जंक फूड ज्यादा खाते हैं, वेअपनी शारीरिक जरूरतों को पूरा करने के लिए इन सप्लिमेंट्स  की मदद ले सकते हैं। अगर कोई शख्स सलाद, दालें, हरी सब्जी आदि से भरपूर हेल्थी डाइट  ले रहा है तो उसे इन सप्लिमेंट्स की कोई जरूरत नहीं है।बाजार में कोई भी सप्लिमेंट ऐसा
नहीं है जिसके बारे में दावे से कहा जा सके कि उसमें वे सभी विटामिंस और तत्व हैं, जो हमारी बॉडी के लिए जरूरी हैं। मल्टी विटामिंस के नाम से बिकने वाले प्रॉडक्ट में भी सभी
जरूरी चीजें नहीं होतीं। इसलिए नैचरल खानपान ही सबसे बेहतर तरीका है।

>प्रोसेस्ड और पैकेज्ड फूड से जितना हो सके, बचना चाहिए। ऐसी चीजें जिनमें प्रिजरवेटिव्स
मिले हों, उनसे भी बचना चाहिए।

>विटामिन सी और बीटा कैरोटींस जहां भी है, वह इम्युनिटी बढ़ाता है। इसके लिए आमला, मौसमी, संतरा, नींबू लें।

>जिंक का भी शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने में बड़ा हाथ है। जिंक का सबसे बड़ा स्त्रोत सीफूड है, लेकिनड्राई फ्रूट्स में भी जिंक भरपूर मात्रा में पाया जाता है।

>फल और हरी सब्जियां भरपूर मात्रा में खाएं।

>खानपान में गलत कॉम्बिनेशन न लें। मसलन दही खा रहे हैं तो हेवी नॉनवेज न लें। दही के
साथ कोई खट्टी चीज न खाएं।

>अचार का इस्तेमाल कम करें। जिन चीजों की तासीर खट्टी है, वेशरीर में पानी रोकती हैं, जिससे शरीर में असंतुलन पैदा होता है। सिरका से भी बचना चाहिए।

> ठंड में शरीर को ज्यादा एक्सपोज न करें। ऐसा करने पर गर्म करने के लिए शरीर को
अतिरिक्त  मेहनत करनी होगी, जिससे प्रतिरोधक क्षमताकम होती है।

>स्ट्रेस न लें। कुछ लोगों में अंदरूनी ताकत नहीं होती। ऐसे में अगर ऐसे लोग स्ट्रेस भी लेना
शुरू कर देंगे तोउनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता एकदम कम हो जाएगी। ऐसे लोगों को जल्दी-जल्दी वायरल इंफेक्शन होने लगेगा।

>ज्यादा देर तक बंद कमरे और बंद जगहों पर न रहें। जहां इतने लोग सांसें ले रहे होंगे, वहां
 इंफेक्शन जल्दी ट्रांसफर होगा। खुली हवा में निकलें और लंबी गहरी सांसें लें।


रोगप्रतिरोधक क्षमता को बेहतर करती है ये चीजें -: ग्रीन टी : इसमें एंटि ऑक्सिडेंट होते हैं,  जो  कई तरह के कैंसर से बचाव करते हैं। ग्रीन टी छोटी आंत में पैदा होने वाले गंदे बैक्टीरिया को पनपने से रोकती है। एक्सपर्ट्स का मानना है कि दिन में तीन कप ग्रीन टी  शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को बेहतर बनाती है।

चिलीज : इनकी मदद से मेटाबॉलिज्म बेहतर होता है। ये नैचरल ब्लड थिनर की तरह काम
 करती है और एंडॉर्फिंसकी रिलीज में मदद करती है। चिलीज में बीटा कैरोटीन भी होता है, जो विटामिनए में बदलकर इंफेक्शन से लड़नेमें मदद करता है।

दालचीनी : एंटिऑक्सिडेंट से भरपूर होती है। दालचीनी लेने से ब्लड क्लॉटिंग और बैक्टीरिया की बढ़ोतरी रोकने में मदद मिलती है। ब्लड शुगर को स्थिर करती है  और बुरे  कॉलेस्ट्रॉल  से  लड़ने  में मददगार है।
शकरकंद : प्रतिरोधक तंत्र को बेहतर बनाने में मददगार है। अल्जाइमर, पार्किंसन और दिल के रोगों को रोकने केलिए इसका इस्तेमाल किया जा सकता है।

अंजीर: अंजीर में पोटेशियम, मैग्नीज और एंटिऑक्सिडेंट्स होते हैं।अंजीर की मदद से शरीर के भीतर पीएच कासही स्तर बनाए रखने में मदद मिलती है। अंजीर में फाइबर होता है, जो ब्लड शुगर लेवल को कम कर देता है।

मशरूम : कैंसर के रिस्क को कम करता है। वाइट ब्लड सेल्स का प्रॉडक्शन बढ़ाकर शरीर के
रोग प्रतिरोधक तंत्र को बूस्ट करता है।

2. आयुर्वेद-: च्यवनप्राश: आयुर्वेद में रसायन रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में बेहद मदद गार  होते हैं। रसायन का मतलबकेमिकल नहीं है। कोई ऐसा प्रॉडक्टजो एंटिऑक्सिडेंट हो, प्रतिरोधक
 क्षमता बढ़ाने वाला हो और स्ट्रेस को कम करता हो, रसायन कहलाता है। मसलन त्रिफला, ब्रह्मा  रसायन आदि, लेकिन च्यवनप्राश को आयुर्वेद में सबसे बढि़या रसायन माना गया है। इसे बनाने मे  मुख्य रूप से ताजा आंवले का इस्तेमाल होता है। इसमें अश्वगंधा, शतावरी, गिलोय समेत कुल 40 जड़ी बूटियां डाली जाती हैं। अलगअलग देखें तो आंवला,
अश्वगंधा, शतावरी और गिलोय का रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में जबर्दस्त योगदान है।
 मेडिकल साइंस कहता है कि शरीर में अगरआई.जी.ई का लेवल कम हो तो प्रतिरोधक क्षमता
बढ़ती है। देखा गया है कि च्यवनप्राश खाने से शरीर में आई.जी.ई.का लेवल कम होता है। इसी तरह शरीर में कुछ नैचरल किलर सेल्स होती हैं, जिनका काम शरीर की रोगप्रतिरोधक क्षमता
में बढ़ोतरी करना होता है। च्यवनप्राश इन कोशिकाओं के काम करने की क्षमता को बढ़ा देता है।

कैसे लें : च्यवनप्राश रोजाना सुबह खाली पेट एक चम्मच लेना चाहिए। उसके बाद थोड़ा दूध ले लें। इसी तरह रात को सोते वक्त एक चम्मच च्यवनप्राश लें और उसके बाद दूध लें। पांच
साल से कम उम्र के बच्चों को च्यवनप्राश नहीं देना चाहिए। पांच साल से ज्यादा उम्र के बच्चों
को दे सकते हैं, लेकिन आधा चम्मच सुबह और आधा चम्मचरात को। च्यवनप्राश सिर्फ सर्दी,
जुकाम, खांसी, बुखार से ही दूर नहीं रखता, बल्कि लीवर की शक्ति को भी बढ़ाता है। अगर
कोई शख्स बीमारी से उठा है या ज्यादा बुजुर्ग हैतो उसे च्यवनप्राश नहीं लेना चाहिए। इसे
पूरे साल हर मौसम में लिया जा सकता है।

कुछ नुस्खे-: हल्दीसुबह खाली पेट आधा चम्मच ताजे पानी से ले सकते हैं। सिर्फ  खांसी  हो तो  हल्दी को भूनकर शहद या घी के साथ मिलाकरचाट लें। गुड़ और गोमूत्र के साथ हल्दी का
 सेवन करने से शरीर की प्रतिरोधक क्षमता में बढ़ोतरी होती है। आंवले का रस एक चम्मच,
 हल्दी की गांठ का रस आधा चम्मच और शहद आधा चम्मच मिला लें। सुबह, शाम लेने से  सभी तरह के प्रमेह, मधुमेह और मूत्र रोगों में फायदा होता है।

अश्वगंधा: आधा चम्मच अश्वगंधा सोने से पहले एक गिलास गर्म दूध के साथ लें। इससे शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमतामें बढ़ोतरी होती है।शरीर को कमजोर कर देने वाले रोगों का डटकर
मुकाबला कर सकते हैं।

आंवला:- ताजे आंवले का रस या चूर्ण त्रिदोषनाशक है। आयुर्वेद में इसे
बुढ़ापे और रोगों से दूर रखने वाला रसायन मानागया है।कहते हैं
कि आंवले के स्वाद और बड़ों की बात की गहराई का पतादेर से चलता है। एक साल तक रोजानाएक चम्मच आंवले का रस या आधा चम्मच
चूर्ण ताजे पानी या शहद के साथ सेवन करनेवालों को आंख, त्वचाऔर मूत्र संबंधी बीमारियों से जिंदगी भर के लिए निजात मिल जाती है।शरीर की रोग प्रतिरोधक शक्ति कोबढ़ानेका अचूक नुस्खा है आंवला।

शिलाजीत-: सर्दियों में दूध के साथ शुद्ध शिलाजीत का सेवन करने सेहड्डियों, लिवर और प्रजनन संबंधी रोग नहीं होते।शिलाजीत का
सेवन करने वाले को कबूतर का सेवन नहीं करना चाहिए।

मुलहठी-: मुलहठी का चूर्ण आयुर्वेदिक एंटिबायॉटिक है। सर्दियों में दूध
या शहद के साथ रोज मुलहठी चूर्ण लेने से शरीर कीप्रतिरोधक क्षमता
बढ़ती है। सर्दी, खांसी, न्यूमोनिया जैसे रोग नहीं होते। कफ संबंधी बीमारियों को खात्मा होता हैऔर श्वसन संबंधीरोग भी नहीं होते। बच्चों
को दो चुटकी मुलहठी चूर्ण शहद के साथदिन में एक बार दी जासकती है। बड़ों को आधा चम्मच मुलहठीचूर्ण गर्म दूध के साथ दिन
में एक बार लेना चाहिए।

तुलसी-:तुलसी के पत्तों में खांसी, जुकाम, बुखार और सांस संबंधीरोगों
से लड़ने की शक्ति है। बदलते मौसम में तुलसीकी पत्तियों को उबालकर
या चाय में डालकर पीने से नाक और गले के इंफेक्शन से बचाव होता है और शरीर कीरोग प्रतिरोधक क्षमता में गजब का इजाफा होता है।

लहसुन-:लहसुन हमारे इम्यून सिस्टम के लिए बेहद महत्वपूर्णदो सेल्स
को मजबूत करता है। कैल्शियम, मैग्नीशियम,फॉस्फोरस और दूसरे दुर्लभखनिज तत्वों का भंडार, लहसुन शरीर और दिमागदोनों की रोग
प्रतिरोधक क्षमताबढ़ाता है। यह सर्दी, जुकाम, दर्द, सूजन और त्वचा
से संबधित बीमारियां को नहीं होने देता। लहसुन का इस्तेमालघी में
तलकर या सब्जियों और चटनी के रूप में किया जा सकता है।

गिलोय-:नीम के पेड़ में पान जैसे पत्तों वाली लिपटी लता को गिलोय
के नाम से जाना जाता है। शरीर की रोग प्रतिरोधकक्षमता को बढ़ाने
वाली इससे अच्छी कोई चीज नहीं है। इससे सभी तरह के बुखार, प्रमेह और लिवर से संबंधिततकलीफों से बचाव होता है। इसका इस्तेमाल
वैद्य की सलाह से ही करना चाहिए। यह शरीरके तापमान को भीकंट्रोल करती है।

जवानी का नायाब नुस्खा : जो युवा हमेशा अपनी फिटनेस और जवानी बरकरार रखना चाहते हैं, उन्हें हर साल में तीन महीने तक यह नुस्खा लेना चाहिए :आंवला, अश्वगंधा और गिलोय का
चूर्ण बराबर मात्रा में मिला लें औरइसे शहद के साथ लें।

3. होम्योपैथी-: होम्योपैथी में वाइटल फोर्स का सिद्धांत काम करताहै। इम्युनिटी को बढ़ाना
ही होम्योपैथी का आधार है। पूरी जिंदगी को वाइटल फोर्स ही कंट्रोल करता है। यही है जो
जिंदगी को आगे बढ़ाता है। अगर शरीर की वाइटल फोर्सडिस्टर्ब है तो शरीर में बीमारियां
बढ़ने लगेंगी। होम्योपैथी में मरीज को ऐसी दवादी जाती है, जो उसकी वाइटलफोर्स को सही
स्थिति में ला दे। वाइटल फोर्स ही बीमारी को खत्म करता है और इसी में शरीर की इम्यूनिटी होतीहै। दवा देकर वाइटल फोर्स की पावर बढ़ा दी जाती है, जिससे वह बीमारी से लड़ती है और
उसे खत्म कर देती है।होम्योपैथी में इम्यूनिटी बढ़ाने के लिए आमतौर पर इन दवाओं का
इस्तेमाल किया जाता है।अल्फाअल्फा क्यू (मदर टिंक्चर) की 5 से 7 बूंदें तीन चम्मच पानी में डालकर दिन में तीन बार रोजाना लें।

अल्फाअल्फा 30 की 3 से 4 बूंद पानी में डालकर दिन में तीन बार लें। इन दोनों दवाओं में
अल्फाअल्फा 30 काअसर ज्यादा गहरा होता है। बच्चों के लिए भी ज्यादा बढ़िया यही दवा है।

दूसरी दवा है अवाइना सटाइवा 30 और अवाइना सटाइवा क्यू। इन दोनों दवाओं को भी ऊपर
दिए गए तरीकों से ही लेना है।

अगर किसी को बार-बार सर्दी, जुकाम, खांसी आदि होते हैं तो इन दवाओं में से कोई एक दो से
तीन महीने तक ले सकते हैं। इससे रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है और छोटी मोटी बीमारियों से राहत मिलती है।

4. नैचरोपैथी-:नैचरोपैथी के मुताबिक बुखार, खांसी और जुकाम जैसे रोगों को शरीर से टॉक्सिंस
बाहर निकालने का मेकनिजम माना जाता है। नैचरोपैथी में इम्युनिटी बढ़ाने के लिए अच्छी
डाइट और लाइफ स्टाइल को सुधारने के अलावा शरीर को डीटॉक्स भी किया जाता है। शरीर
को डीटॉक्स करने के लिएखूब पानी पिएं। हाइड्रेशन के अलावा यह शरीर पर हमला करने वाले माइक्रो ऑर्गैनिजम को बाहर निकालने का काम भी करता है।
लिवर के काम करने की क्षमता को बेहतर बनाएं। इसके लिए नैचरोपैथी में गैस्ट्रोहिपेटिक पैक
(लिवर पैक) की मदद से इलाज किया जाता है। इसमें पानी का इस्तेमाल होता है। इससे लिवर
की काम करने की शक्ति और मेटाबॉलिज्म बेहतर होती है। किसी योग्य नैचरोपैथ की देखरेख
में इसे किया जा सकता है। 15 दिन तक रोजाना 20 मिनट की सिटिंग होती है। इसके साथ
सही डाइट लेने को भी कहा जाता है।

हफ्ते में एक बार पूरे शरीर की अच्छी तरह मसाज करें। इसके लिए तिल के तेल या ओलिव
ऑयल का इस्तेमाल कर सकते हैं।तेल को गुनगुना रखें। वैसे, थेरप्यूटिक मसाज भी होती है,
जो किसी योग्य नैचरोपैथ की देखरेख में ही की जाती है। मसाज से शरीर के तमाम पोर्स
खुलते हैं और शरीर की कोशिकाओं की सफाई हो जाती हैं।

5. योग और एक्सरसाइज-: शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता में बढ़ोतरी करने में यौगिक  क्रियाएं  बेहद फायदेमंद हैं। किसी योगाचार्य से सीखकर इन क्रियाओं को  इसी क्रम में करना  चाहिए कपालभांति, अग्निसार क्रिया,सूर्य नमस्कार, ताड़ासन, उत्तानपादासान, कटिचक्रासन, सेतुबंधासन, पवनमुक्तासन, भुजंगासन, नौकासन, मंडूकासन, अनुलोम विलोम प्राणायाम, उज्जायी प्राणायाम, भस्त्रिका प्राणायाम, भ्रामरी और ध्यान।

एक्सरसाइज-: एक्सर्साइज करने से शरीर के ब्लड सर्कुलेशन में बढ़ोतरी होती है, मसल्स टोन होती हैं, कार्डिएक फंक्शन बेहतर होता है और रोग प्रतिरोधक क्षमता में बढ़ोतरी
होती है। शरीर से जहरीले पदार्थ निकालने में भी एक्सर्साइज मददकरती है। दरअसल,एक्सर्साइज के दौरान हम गहरी, लंबी और तेज सांसें लेते हैं। ऐसा करने से जहरीले पदार्थ फेफड़ों से बाहर निकलते हैं। दूसरे एक्सर्साइज के दौरान हमें पसीना भी आता है। पसीने के जरिये भी शरीर से गंदे पदार्थ बाहर निकलते हैं। एक स्टडी के मुताबिक अगर रोजाना सुबह 45 मिनट तेज  चाल  से टहला जाए तो सांस से संबंधित बीमारियां दूर होती हैं और बार-बार बीमारी होने की
आशंका को आधा किया जा सकता है। इससे फर्क नहीं पड़ता कि एक्सर्साइज का तरीका  क्या है, लेकिन  अगर आप इसे नियम सेकर रहे हैं तो शरीर की रोगप्रतिरोधक  क्षमता में  बढ़ोतरी होगी ही।

बच्चों में इम्युनिटी-: इम्युनिटी कितनी है, इसकी नींव गर्भावस्था से ही पड़ने लगती है।  इसलिए जो मां चाहती हैं कि उनके बच्चे की इम्यूनिटी बेहतर रहे, उन्हें इसके लिए तैयारी  गर्भधारण के वक्त  से ही शुरू कर देनी चाहिए। गर्भावस्था मेंस्मोकिंग,  शराब, स्ट्रेस  से पूरी  तरह  दूर रहें। पौष्टिक खाना लें। गर्भवती महिलाएं अच्छा संगीत सुनें और अच्छी किताबें पढ़ें।

Kalpant Healing Center
Dr J.P Verma (Swami Jagteswer Anand Ji)
(Md-Acu, BPT, C.Y.Ed, Reiki Grand Master, NDDY & Md Spiritual Healing)
Physiotherapy, Acupressure, Naturopathy, Yoga, Pranayam, Meditation, Reiki, Spiritual & Cosmic Healing, (Treatment & Training Center)
C53,  Sector 15 Vasundra, Avash Vikash Markit, Near Pani Ki Tanki,  Ghaziabad
Mob-: 9958502499

जीवनीशक्ति

जीवनीशक्ति का ह्रास-: हमारे स्वास्थ्य का आधार है – जीवनी शक्ति (वाईटल एनर्जी)। यदि हमारी जीवनी शक्ति ठीक है तो हम रोगमुक्त रह सकते हैं। अगर जीवनी शक्ति दुर्बल है तो रोगों का आक्रमण होता है और जीवनी शक्ति नष्ट होने से मृत्यु आ जाती है।
जीवनी शक्ति के तीन प्रमुख कार्य हैं-
शरीर का पोषण, निर्माण एवं विकास करना।
विजातीय द्रव्यों को बाहर निकालना।
शरीर की मरम्मत करना।
शरीर में उत्पन्न होने वाले मल-मूत्र, पसीना, कफ आदि का पूर्ण विकास न होने पर, उन विजातीय पदार्थों के शरीर में ही जमा रहने पर रोग उत्पन्न होते हैं।इन विजातीय पदार्थों के रक्त में मिलने से बुखार, हृदयरोग एवं चर्मरोग उत्पन्न होते हैं। आँतों में जमाहोने पर कब्ज, गैस, दस्त-पेचिश, बवासीर, भगंदर, हर्निया एवं एपेण्डीसाईटीस को जन्म देते हैं। मस्तिष्क पर उनका प्रभाव पड़ने पर सिरदर्द, अनिद्रा, मिर्गी व पागलपन आदि उत्पन्न होते हैं। गुर्दों में प्रभाव पड़ने से पथरी आदि की सम्भावना बढ़ जाती है। फेफड़ों में उन विजातीय पदार्थों के जमा होने पर सर्दी, खाँसी, दमा, न्यूमोनिया, क्षय एवं कैंसर की सम्भावना रहती है।

मानसिक तनाव, चिंता, क्रोध, दुःख, आवेश, भावुकता तथा अधीरता आदि के कारण हृदय, मस्तिष्क एवं स्नायु के रोग होते हैं।
जीवनी शक्ति दुर्बल होने के मुख्य कारण हैं-
>सामर्थ्य से अधिक शारीरिक तथा मानसिक कार्य करना एवं आवश्यक विश्राम न लेना जीवनीशक्ति का ह्रास करता है।
>रात्रि में काम करना व दिन में सोना जीवनीशक्ति का ह्रास करता है।
>आज दिन भर काम ओर रात को भय, चिंता, क्रोध आदि के कारण शरीर व मन को तनाव में रखना जीवनीशक्ति का ह्रास करता है।
>पौष्टिक आहार का अभाव या आवश्यकता से अधिक खाना। नशीली वस्तुओं एवं गलत आहार का सेवन। रात्रि को देर से भोजन करना व दिन को भोजन करके सोना जीवनीशक्ति का ह्रास करता है।
>उपवास की महत्ता न समझने से भी जीवनी शक्ति का ह्रास होता है। भविष्य में कभी भी किसी प्रकार की पीड़ा का अनुभव करें तो उपवास करें अथवा रसाहार या फलाहार पर रह कर, जीवनी शक्ति को पाचन कार्य में कम व्यस्त रखकर शरीर की शुद्धि तथा मरम्मत के लिए अवसर देंगे तो तुरंत स्वास्थ्य लाभ होगा।
>वीर्यरक्षा (ब्रह्मचर्य) की उपेक्षा करना जीवनीशक्ति का ह्रास करता है।
>विषैली औषधियों, इंजेक्शनों का प्रयोग तथा ऑपरेशन कराना एवं प्रकृति के स्वास्थ्यवर्धक तत्त्वों से अपने को दूर रखना जीवनीशक्ति का ह्रास करता है।
>स्नायु तंत्र की थकान के कारण भी जीवनीशक्ति का ह्रास होता है।
>नकारात्मक विचार हमारी जीवनीशक्ति का ह्रास करते है।
जीवनी शक्ति को बड़ाने के उपाए-: अगर जीवनी शक्ति मजबूत है तो रोग आयेंगे ही नहीं और अगर आयें भी, तो टिकेंगे नहीं।
>जीवनी शक्ति को बड़ाने का निशुल्क व सबसे बढ़िया तरीका योग व प्राणायाम है। इससे जीवनीशक्ति तेजी से बढ़ती है। प्राणायाम करने से मनोबल भी बढ़ता है और बुद्धिबल भी बढ़ता है। बहुत से ऐसे रोग होते हैं जिनमें कसरत करना संभव नहीं होता लेकिन प्राणायाम किये जा सकते हैं।प्राणायाम करने से एक विशेष फायदा यह होता है कि हमारे रोमकूप खुलने लगते हैं। हमारे फेफड़ो में कई हजार रोम छिद्र हैं। उनमें से किसी मनुष्य के 200, किसी के 300 तो किसी-किसी के 500 छिद्र काम करते हैं शेष सब छिद्र बंद पड़े रहते हैं। प्राणायाम से ये बंद छिद्र खुल जाते हैं।जो लोग प्राणायाम नहीं करते उनके ये छिद्र बंद ही पड़े रहते हैं। इससेउनकी प्राणशक्ति कमजोर हो जाती है और उन बंद छिद्रों में जीवाणु उत्पन्न होते हैं। ज्यों ही रोगप्रतिकारक शक्ति कम होती है वे जीवाणु दमा, टीबी आदि बीमारियों का रूप ले लेते है।प्राणायाम से रोगप्रतिकारक शक्ति बढ़ती है और इस शक्ति से भी कई जीवाणु मर जाते हैं। प्राणायाम करने से विजातीय द्रव्य नष्ट हो जाते हैं और सजातीय द्रव्य बढ़ते हैं। इससे भी कई रोगों से बचाव हो जाता है।
>सूर्य की किरणों में भी रोगप्रतिकारक शक्ति होती है। व जीवनीशक्ति को बढ़ावा मिलता है। सुवह की धुप में 30 मिनट प्रतिदिन टहलना से जीवनीशक्ति भरपूर मात्रा में बनी रहेती है।सूर्य की किरणों में बैठकर 10 मिनट प्राणायाम करें और शवासन में लेट जायें। जहाँ रोग है वहाँ हाथ घुमाकर रोग को मिटाने का संकल्प करें। इससे बड़ा लाभ होता है।
>मंत्रजाप भी जीवनी शक्ति को बढ़ाता है।-: तुलसी के पत्तों का सेवन तथा मंत्रजाप – ये रोगप्रतिकारक शक्ति को बढ़ाते हैं, मन को प्रफुल्लित रखते हैं और बुद्धि को तेजस्वी बनाने में सहायक होते हैं। तथा जीवनीशक्ति को बनाये रखते है।
>A.B.C जूस-: A आमला (Amla), B चकुन्दर (Beet) C गाजर (carrot) का जूस जीवनीशक्ति को मजबूत करता है। इसमें कार्बोहाइड्रेट, आयरन, विटामिन C,A, फास्फोरस, केल्शियम, सभी खनिज तत्व शरीर को मिल जाते है। इस जूस में 1 kg गाजर, 500 ग्राम चकुन्दर, व 250 ग्राम आमला लिया जाता है। यह जूस जीवनीशक्ति को बड़ाने का अच्छा स्रोत्र है।
>संतुलित आहार-: ऐसा आहार जो शरीर को पोषण दे, सभी विटामिन, खनिजो, लवणों, व जरुरी तत्वों की पूर्ति करता हो वो जीवनीशक्ति को बढ़ाता है। सभी अंकुरित अनाज व दाल में पोषक तत्व की मात्रा बढ़ जाती है ओर जीवनी शक्ति को प्रबल करते है।
> जहाँ नकारात्मक विचार हमारी जीवनीशक्ति का ह्रास करते है। वही सकारात्मक विचार हमारी जीवनीशक्ति को प्रबल करते है।
इस प्रकार हम प्राकर्तिक जीवन अपनाकर अपनी जीवनी शक्ति को बढ़ा सकते है।
हमारे शारीर में 12 जगहो पर जीवनीशक्ति का राज्य होता हैं।हर दो घंटे में एक एक अंग मे विशेष प्रभाव होता है।अगर ये बात जानकर फायदा उठाये तो आप भी दीर्घजीवी रहोगे और आपके द्वारा बड़े-बड़े काम हो सकते है। 24 घंटे हमारी जीवनीशक्ति बारह केन्द्रों में 2-2 घंटे विचलन करती है।
1. सुबह 3 से 5 हमारी जीवनीशक्ति फेफड़ो में होती है।उस समय 3 से 5 के अंदर अगर आप प्राणायाम कर लेते है, तो आपकी रोगप्रतिकारक शक्ति, अनुमान शक्ति, शौर्यशक्ति विकसित होगी।जिनको दमे की बीमारी हो, टी. बी. की बीमारी हो उनको तो खासकर इस टाईम में प्राणायम करना चाहिए। जिसके दवाई खा-खाकर लंग्स कमजोर हो गए।वो इस समय का प्रयोग करें,क्योकि इस समय फेफडो की राजसत्ता होती है।
2. सुबह 5 से 7 आपकी जीवनीशक्ति बड़ी आंत में होती है 5 से 7 के बीच आप 2 गिलास गुनगुना पानी पी लिया करे, पानी ज्यादा ठंडा या ज्यादा गरम नहीं होना चहिये। अगर तांबे के बर्तन में रात का रखा पानी पिया जाये तो ओर अधिक लाभ होता है। पानी पीकर थोड़ा टहलना चहिये या एक जगह खड़े होकर दोड़े या जंप-बंप मारे फिर शौच जाये, 7 बजे के बाद शोच जाने की आदत से पेट ख़राब रहेता है।उसके पेट की गड़बड़ी बनी रहती है।ओर कितना भी उपाय इलाज करोगे लेकिन पेट की गड़बड़ी ठीक नहीं होंगी। तो 5 से 7 बजे के बीच बड़े आंत  में जीवनीशक्ति होती है। उस समय तक योग, व्यायाम, घुमना आदि निपट ले।
3.7 से 9 जीवनीशक्ति आमाशय में होती है।आमाशय में बड़ी आंत की सफाई करने की ताकत होती है।तथा भोजन, पाचन आदि आसानी से होता है, 7 से 9 के बीच आपको हल्का-फुल्का पेय पदार्थ लेना चहिये, इससे सैंकडों पाचन रोगों से बचाव होगा।
4. 9 से 11 आपकी जीवनीशक्ति प्लीहा अग्नाशय में होती है, इसे जठरा भीकहेते है।उस समय पाचक रस ज्यादा बनता है।पाचन में मदत मिलती है, पाचन ठीक नहीं हुआ तो कच्चा रस बनता है।फिर शरीर मोटा, कमर में दर्द, थकान, आलस्य, अकारण शरीर में कुछ ना कुछ गड़बड़ी होती है।क्योकि 9 से 11 आपकी जीवनीशक्ति प्लीहा अग्नाशय में होती है।उस समय पाचन रस ज्यादा बनने से 9 से 11 के बीच भोजन कर लेना चहिये।डायबीटीज वालो को तो खास उस समय भोजन करना चाहिए और जिनका पाचन कमजोर है, उनको भी भोजन कर लेना चाहिए।कमजोर पाचन को तेज करना हो तो 3-5  खजूर रात को भिगा दे, ओर  मसलके दूध में सुबह-सुबह पी ले,7 से 9बजे तक तो आँतो को शक्ति मिलेगी व आँतो का रस भी ज्यादा बनेने लगेगा।पाचन ज्यादा होगा और भोजन के साथ एक ग्लास गुनगुना पानी बीच-बीच में दो-दो घूँट पीते जाये।भोजन के बीच कई बार गर्म पानी पीने से भोजन सुपाच्च्य हो जायेगा।ध्यान रहे9 से 11 के बीच भोजन कर लेना चाहिए और डायबीटीज व कमजोर पाचन वाले को तो जरूर करना चहिये।
5. 11 से 1 में जीवनीशक्ति ह्रदय में रहती है।अगर उससमय भोजन करोगे तो मानवी संवेंद्नाएँ, स्नेह, प्रसन्नता आदि का गला घुट जायेगा। ओर11 से 1 के बीच भोजन करेंगे तो भोजन के रसो में, स्वादों में और भोजन के पाचन में ह्रदय उलझेगा।ह्रदय का विकास रुक जायेगा, आदमी निर्दयी हो जायेगा, स्वार्थी हो जायेगा, तनाव और टेंशनवाला हो जायेगा।इसलिये 11 से 1 के बीच भूलकर भी भोजन नहीं करना चाहिए।11 से 1 ह्रदय के विकास की सत्ता है, ह्रदय विकसित है, इस समय सत्संग, समाजसेवा,सतकर्म, सतभाव, भावग्राही कार्य करने चाहिये।
6. 1 से 3 जीवनीशक्ति छोटे आँत में होती है।उसका मुख्यकार्य है जो भोजन 11 बजे तक खाया गया उससे जो रस बना उससे पोषक तत्वों को अपने अन्दर खींचनावपुरे शरीर  को देना।इसलिये अगर1 से 3 में भोजन खाया तो पोषक तत्व कहाँ मिलेंगे।जैसे कच्ची रोटी, कच्चा चावल, कच्ची दाल अच्छा नहीं लगता।ऐसे ही पोषक तत्वों की जगह पर बीमारी करने वाले कच्चे रस होते है, कई बीमारीयां इसी कारण होती है।

7.3 से 5 जीवनी शक्ति मूत्राशय में रहती है।उस समय अधिक पानी पीनेसे पत्थरी की बीमारी नहीं होगी वडायबीटीज की बीमारी जल्दी नहीं होगी और बुढ़ापे में पेशाब सबंधी जो तकलीफे होती है, वो सब नहीं होगी। जिनको भी पथरी है भूलकर भी ऑपरेशन नहीं करवाना चाहिये,चाहे पेशाब की जगह, किडनी की जगह, लीवर की जगह पत्थरी हो, कोई ऑपरेशन की जरूरत नहीं।पथ्थर चटा पौधेके दो-दो पत्ते सुबह-शाम खाये थोड़े दिन में पत्थरी खत्म हो जायेगी।1 से 3 छोटी आंत में 3 से 5 मूत्राशय में जीवनीशक्ति होती हैं।उस समय पानी पी लेना चाहिए और पानी पी के तुरंत बाथरूम नहीं जाना चहिये व बाथरूम जा के तुरंत पानी नहीं पीना चाहिए। कम से कम 10 मिनट का अंतर होना जरूरी है।

8. 5 से 7 जीवनीशक्ति गुर्दे में होती है।शाम का भोजन अगर 5 से 7 के अंदर कर लेते हो तो किडनी औरकान की तकलीफ कभी नहीं होंगी।

9. 7 से 9 के बीच  जीवनीशक्ति मष्तिष्क में रहती है।उस समय धार्मिक लोग शास्त्र पढ़े, पाठ, श्लोक, गीता, रामायण, उपनिषद, कंठस्त, आसनी से करेंगे और बच्चों को कम मेहनत में याद रह जायेगा।7 से 9 के बीच स्पेशल ट्यूशन की जरुरत नहीं होती।परिवार वाले उनको थोडा पढ़ा लेंगे हो जायेगा।क्योकि7 से 9 जीवनीशक्ति मस्तक में रहती हैं। इसलियेमस्तक संबंधी काम ईसी समय कर लेना चाहिये।

10.9 से 11 जीवनीशक्ति मेरुरज्जु में रहती है, उस समय की नींद पूर्ण आराम देती है वथकान मिटाती है।

11. 11 से 1 में जीवनीशक्ति पित्ताशय में होती है।पित्त का संचय मानसिक नियंत्रण करता है।अगर 11 से 1के बीच टी.वी. देखा जायेगा तो चिडचिडापन हो जायेगा।पित्त सबंधी रोग होगे।पित्त और वायु मिलके हार्टअटक बनता है, नेत्र सबंधी रोग होंगे, आँख जलेंगे, अधिक मासिक आयेगा, कई बार हो जायेगा, ये सब बीमारी होगी।
12. अगर 1 से 3 के बीच कोई जगता है रात में तो उस समय जीवनीशक्ति लीवर में रहती है।लीवर शरीर का खास अंग है।
1 से 3 जागोगे तो बड़ा घाटा है उस समय शरीर को पूरा विश्राम मिलता है वनिद्रा गहरी होती है। शरीर को नई कौशिका बनाने का अवसर मिलाता है।अगर नई कौशिका नहीं बनी तो शरीर क्षीण होने लगेगा। और अगर इस समय पति-पत्नी का सेक्स हुआ तो जो कौशिका हैं वो भी कम हो जायेगी और बुढापा जल्दी आयेगा।

विशेष-: 11 से 1 जागोगे तो मानसिक विक्षेप हो जाएगा और 1 से 3 पति पत्नी का व्यवहार करना बहूत घाटा है। जैसे आमवस्या, पूर्णिमा को पति-पत्नी का संभोग का काम करनेवाले को विकलांग संतान ही पैदा होगी।अगर गर्भाधान नहीं हुआ तभी भी अमावस्या और पूनम को जीवनीशक्ति का ह्रास ज्यादा होने से कोई न कोई बीमारी पकड लेती है। तो 1 से 3 भूलकर भी संसार व्यवहार नहीं करना चाहिये।
शिवरात्री पर ग्रह-नक्षत्रों का ऐसा योग बनता है की इस समय ऊर्जा चरम पर होती है।इस समय शिवरात्री को अगर आपने उपवास किया है तो हमारी जीवनीशक्ति ऊर्जा और प्राण ऊर्ध्वगामी होते है। शिवरात्री के दिन भगवान शिव का बीज मंत्र ‘ॐ बम बम बम’ अगर सवा लाख जप करते है, तो गठियां की बीमारी से बिस्तर पे पड़ा मरीज एक दिन में दौड़ने लग जायेगा।इसी प्रकार
शिवरात्री की रात ‘ॐकार’ मंत्र का जप बच्चो से कराने सेबच्चे अच्छे बनेंगे, मार्क तो अच्छे लायेंगे साथ ही साथ उनकी मस्तिष्क की क्षमता भी बहूत ऊँची हो जाएगी।इसी प्रकार कुछ विशेष समय पर ऊर्जा का प्रभाव अधिक होता है उस समय पर कोई भी मन्त्र करने से आपकी जीवनी शक्ति बढकर बहुत से चमत्कार कर सकती है।

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Physiotherapy, Acupressure, Naturopathy, Yoga, Pranayam, Meditation, Reiki, Spiritual & Cosmic Healing, (Treatment & Training Center)
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रोंगों के कारण

रोंगों के कारण

संसार में जो भी प्रघट होता है उसका कोई न कोई कारण जरूर होता है। शरीर के रोगी होने के भी बहुत से कारण होते है। ज्योतिष की नजर में रोंग ग्रहों की दशा के कारण होते है। वही तांत्रिक ओझा आदि रोंगों का कारण भूत प्रेत को मानते है। एलोपैथी कीटाणु विषाणु व जीवाणुओं को रोंग का कारण मानते है।
वही आयुर्वेद वात कफ पित्त के असंतुलन को रोंगों का कारण मानते है। परन्तु प्राकृतिक चिकित्सा इन सब से अलग रोगी को ही रोंग का कारण मानती है

प्राकृतिक चिकित्सा के अनुसार रोंग के मुख्य दो कारण होते है बाह्य व आंतरिक, प्राकृति के विरुद्ध चलना व व्यवहार करना बाह्य कारण है, ओर काम क्रोध, भय, अहंकार, इर्ष्या, द्रेष, हीनभावना, आदि आंतरिक कारण होते है। सभी रोंग पहेले हमारे सूक्ष्म शरीर में आते है फिर स्थूल शरीर में, रेकी के द्वारा रोंगों को सूक्ष्म शरीर में ही खत्म कर दिया जाता है, ओर स्थूल शरीर तक रोंग नहीं आते। प्राकृतिक चिकित्सा भी स्थूल शरीर से रोंगों को खत्म तो करती ही है, साथ ही साथ सूक्ष्म शरीर के रोंग भी खत्म हो जाते है। जिससे हम बहुत से आने वाले रोंगों से भी बच जाते है।

प्राकृतिक चिकित्सा के अनुसार रोंगों के कुछ कारण

अप्राकृतिक जीवन यापन-: जब हम प्राकृति के विरुद्ध आचरण करना शुरू करते है, तो रोगी होना शुरु हो जाते है। हमारी प्रतिदिन की आदते ही रोंगों का कारण बन जाती है। जेसे अप्राकृति भोजन, आलस्य, पंचतत्वों का कम प्रयोग, अनियमित भोग विलास, मिथ्योउपचार, व मानसिक व्यवहार व विचार आदि।

किसी घर में 4 सदस्य एक साथ रहते हैं। चारों लोग अप्राकृतिक रूप से जीवनयापन करते हैं। वे उत्तेजक तथा मादक द्रव्यों का सेवन करते हैं, आवश्यकता से अधिक भोजन करते हैं, परिश्रम नहीं करते हैं, तथा निर्मल जल, सूर्य का प्रकाश तथा स्वच्छ वायु आदि प्राकृतिक उपादानों का उचित रूप से भी सेवन भी नहीं करते हैं, इसके परिणामस्वरूप उन चारों व्यक्तियों के शरीर का रक्त जहरीला हो जाता है। उनका शरीर दूषित मल (जिसे प्राकृतिक चिकित्सा विज्ञान की भाषा में `विजातीय द्रव्य` कहते हैं।) से भर जाता है। जिसके परिणामस्वरूप चारों सदस्य रोगों से ग्रस्त हो जाते हैं। परिस्थिति, आयु, प्रकृति आदि के अनुसार उन चारों प्राणियों में सभी अलग-अलग बीमारियों से पीड़ित होते हैं। जैसे कोई दस्त से पीड़ित हो सकता है, किसी को बुखार हो सकता है, किसी को गठिया का रोग हो सकता है, तो किसी को बवासीर होती हैं। इस प्रकार अप्राकृतिक जीवन यापन से बहुत से रोंग पैदा होते है 

विजातीय द्रव्य-: विजातीय द्रव्य का अर्थ है वो पदार्थ जिनकी शरीर को आवस्यकता नहीं होती, ओर वो शरीर में संचित होकर रोंग पैदा करते है, विजातीय द्रव्य कहलाते है। शरीर के अन्दर पोषण व निष्क्रासन की क्रिया निरंतर चलती रहती है, जब किसी भी कारण से निष्क्रासन की क्रिया में बाधा उत्पन्न होती है, तो हमारे शरीर में विजतिय द्रव्य जमा हो जाते है। ये द्रव्य ठोस, तरल, व गेस तीनों अवस्थाओं में पाये जाते है जेसे मल, मूत्र, पसीना, कफ, दूषित वायु, दूषित साँस, दूषित रक्त, दूषित मांस, आदि कोई भी वस्तु जो शरीर को पोषण नहीं दे सकती, ओर रोंगों का कारण बनती है वो सब विजातीय द्रव्य होते है 
जब हम प्राकृतिक नियमों के अनुसार अपना जीवन यापन करना छोड़ देते हैं, तो तब विजातीय द्रव्य हमारे शरीर में बड़ना शुरू हो जाते है। ओर हमें विभिन्न शारीरिक परेशानियों का सामना करना पड़ता है। 
शरीर के दूषित पदार्थों को निकालने वाले प्रमुख अवयव निम्नलिखित हैं-
* फेफडे़ :फेफड़े श्वास के द्वारा शरीर से कार्बन डाईआक्साइड को बाहर निकालते हैं।
* गुर्दे :गुर्दे मूत्र और नमक को शरीर से बाहर निकालते हैं।
* आंते :खाना पचने के बाद जो अवशिष्ट शेष बचा रह जाता है, आंते उसे मल के साथ पेट से बाहर निकाल देती हैं।
* त्वचा :त्वचा पसीने की सहायता से शरीर के दूषित तत्वों को शरीर से बाहर निकाल देती है।
यदि उपर्युक्त अंगों पर जरूरत से अधिक भार पड़ता है, तो नसों में रुकावट आ जाती है जिससे खून का बहाव ठीक प्रकार से नहीं हो पाता है जिसके कारण खून में विषैले पदार्थ मिल जाते हैं। अधिक मात्रा में किया गया ऐसा भोजन, जिसकी गुणवत्ता में कमी हो, साथ में व्यायाम का भी अभाव नसों में रुकावट पैदा करता है। इसके परिणामस्वरूप श्वास प्रक्रिया सम्बंधी अवयवों, जैसे नाक और गले में सूजन हो जाती है, त्वचा शुष्क हो जाती है तथा बहुत अधिक तैलीय हो जाती है, लीवर में भी सूजन उत्पन्न होने से उसमें वृद्धि हो जाती है, आंतों में कब्ज हो जाता है और शरीर के अवशिष्ट पदार्थ के विषैले तत्व खून के प्रवाह में मिल जाते हैं। इस स्थिति में ऑक्सीजन द्वारा बिगड़ी हुई प्रणाली को सुधारने के लिए व्यायाम की आवश्यकता होती है।
विजतिय द्रव्य का प्रथम स्थान पेट होता है, ओर पेट से ही सब बीमारियों का जन्म होता है। ओर जब विजातीय द्रव्य अम्ल रूप धारण करके शरीर में भ्रमण करता है, ओर जगह जगह जमा होता है तो रोंग पैदा होते है। विजातीय द्रव्य में अपने रूप को बदलने की अद्भुत क्षमता होती है। ओर जब इसमें उद्देग होता है तब इसमें कीटाणु व जीवाणु उत्पन्न होने लगते है फिर यही रोंग का रूप ले लेते है। उद्देग के कारण विजातीय द्रव्य में गर्मी पैदा होती है जिससे तीव्र रोंग सर्दी, खाँसी, जुखाम, बुखार, कब्ज, दस्त, उल्टी, आदि होने लगती है।
विजतिय द्रव्य केवल खाने पीने से ही शरीर में नहीं बड़ता है ओर भी मार्गो से शरीर में प्रवेश करता है श्वास के साथ हवा में मोजूद कीटाणु, धुल-कण, धुआ, आदि तत्व शरीर में चले जाते है। मुख के द्वारा पानी की गंदगी शरीर में जाती है। सांप आदि जहरीले जंतु के काटने से विष शरीर में प्रवेश कर जाता है। बहुत से विष एलोपैथी दवाओ के द्वारा शरीर में पहुंचता है। बहुत से नसे के रूप में (तंबाकू, बीड़ी, सिगरेट, अफीम, गांजा, चरस, शराब, विस्की, आदि) विष हमारे शरीर में पहुंचते है। इसप्रकार बहुत से विजातीय द्रव्य हमारे शरीर में प्रतिदिन आते रहेते है, ओर जब जमा हो जाते है, तो रोंग हो जाते है।
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Friday, 16 February 2018

शरीर के निरोग के होने के लक्षण

शरीर के निरोग के होने के लक्षण

शरीर के निरोग के होने के लक्षण -:प्राकृतिक चिकित्सा के अनुसार यदि किसी व्यक्ति का शरीर पूर्ण रूप से विकारों और विजातीय द्रव्यों से रहित होता है तो वह निरोगी होता है। स्वस्थ व्यक्ति का शरीर, मन और आत्मा तीनों ही स्वस्थ होते हैं तथा शरीर की समस्त इन्द्रियां और अंग सुचारु तरीके से अपना-अपना कार्य करते हैं। एक स्वस्थ व्यक्ति की आंखों में निर्मलता और शांति झलकती रहती है और उसकी मुखाकृति की रेखाओं में तोड़-मरोड़ नहीं होती। स्वस्थ शरीर में भोजन का पाचन आसानी से होता है जिससे मल आसानी से साफ होता है। प्रकृति के नियमों का पालन करने वाले गाय, बैल, भैंस आदि जब भी मल का त्याग करते हैं तो उनका गुदा धीरे-धीरे फैलता है और वे आसानी से मल का त्याग करते हैं, उसकी गुदा पर मल का कोई भी भाग चिपका नहीं रहता है। ठीक उसी प्रकार मनुष्य का मल और उसका त्याग भी इसी तरह से होना चाहिए। यदि किसी व्यक्ति को मल त्यागने में काफी देर तक बैठना, जोर लगाना, मल का कठोर या पतला हो तो यह उसकी अस्वस्थता को प्रदर्शित करता है। निरोगता को पहचानने के लक्षण

1-      निरोगी व्यक्ति हमेशा ही प्रसन्न रहता है।
2-      हृदय स्वयं ही इस बात का सूचक होता है कि शरीर में किसी भी प्रकार का कोई रोग नहीं है और वह शतप्रतिशत निरोग है।
1-      सुबह के समय उठने पर शरीर में पर्याप्त स्फूर्ति, उत्साह और ताजगी होना भी शरीर की स्वस्थता को प्रदर्शित करता है।
2-      शरीर में किसी भी प्रकार के रोग के सम्बंध में कोई जानकारी अथवा वेदना का अनुभव नहीं होना चाहिए।
3-      वह व्यक्ति जो कार्य करते समय कार्य और विश्राम के समय विश्राम करता है उसका शरीर भी पूर्णरूप से स्वस्थ होता है।
4-      जो व्यक्ति सहनशील, कठिन से कठिन काम से न घबराने वाला, स्वतंत्र विचार रखने वाला, अध्यवसायी, दृढ़ प्रतिज्ञ, आत्मविश्वासी, हंसमुख, सुंदर, दयावान, आत्मोल्लास से परिपूर्ण, मेधावी, बलवान, दीर्घजीवी और विनयी होता है।
5-      वह शारीरिक और मानसिक दोनों रूपों में पूर्ण रूप से स्वस्थ होता है।
6-      जिन लोगों की त्वचा मुलायम, चिकनी, लचीली, स्वच्छ और गर्म हो तथा खुजलाने से त्वचा में लकीरे न बनती हो, उन लोगों का स्वास्थ्य भी निरोग रहता है।
7-      रोमकूपों के स्थान सघन, सुंदर और मुलायम बालों से भरे हों तथा जिसके पसीने में किसी प्रकार की बदबू न आती हो।
8-       जाड़े, गर्मी तथा बरसात आदि सीजनों को सहने में सक्षम व्यक्ति भी पूर्ण रूप से स्वस्थ होता है।
9-       लोगों के मुखमंडल की त्वचा की और होठों पर आत्मविश्वास की झलक होना भी स्वस्थता की निशानी होती है।
10-   पूर्ण रूप से स्वस्थ व्यक्ति की आंखे चमकीली, स्वच्छ, नाक की ओर आंख के कोनों में कुछ लालिमा होती होती है तथा उसकी आंखे डबडबाई हुई और लाल नहीं होती हैं।
11-   स्वस्थ व्यक्ति की जीभ चिकनी, गुलाबी, समतल, स्वच्छ और शीतल होती है।
12-   स्वस्थ व्यक्ति के दांत स्वस्थ और मजबूत तथा मोती के समान साफ और चमकदार होते हैं।
13-   शरीर की नसों में उभार का न होना स्वास्थ्य का प्रतीक होता है।
14-   पूर्ण रूप से स्वस्थ व्यक्ति के मुंह का स्वाद अच्छा होता है तथा बार-बार थूकने और खंखारने की आदत नहीं होती है।
15-   स्वस्थ व्यक्ति के शरीर के सभी अंग अपना कार्य सुचारू रूप से करने वाले होते हैं तथा उसके नाखून गुलाबी रंग के पैरों के तलवों से मिलते-जुलते हैं।
16-   स्वस्थ व्यक्ति की गर्दन गोल और सीधी होती है वह न अधिक लम्बी और न ही एकदम घुसी हुई होती है।
17-   सोते समय मुंह का बंद होना और हृदय की धड़कन सामान्य तथा सांस का दुर्गंध रहित होना व्यक्ति के पूर्ण रूप से स्वस्थ होने का लक्षण होता है।
18-   स्वस्थ व्यक्ति की नींद गहरी, लम्बी और बिना किसी स्वप्न के होती है।
19-   भोजन करने के बाद पेट में गुड़गुडाहट का न होना और पेट का भारी होकर आलस्य का अनुभव न होना और पाचनशक्ति का ठीक होना स्वस्थ होने के लक्षणों में आते हैं।
20-   शारीरिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति का पेशाब बिना किसी कष्ट के आसानी से होता है तथा हल्की गर्मी लिए हुए पीले रंग का गंधहीन पेशाब तेजी के साथ बाहर निकलता है।
21-   प्रतिदिन शौच का दो बार साफ होना और मल का गुदा द्वार पर न चिपकना स्वस्थ व्यक्ति की निशानी होता है तथा मल निर्गंध और न अधिक कठोर और न अधिक पतला होता हो।
22-   स्वस्थ व्यक्ति को न तो प्यास अधिक प्यास लगती है और न ही कम। शुद्ध और ताजे जल का सेवन करने से प्यास बुझ जाती है और शांति प्राप्ति होती है।
23-   प्राकर्तिक आहार फल, हरी सब्जी, सूखे मेवो आदि सप्राण भोजन में अभिरुचि हो।
24-   आहार विहार में उत्तेजना के वशीभूत न हो।
25-   सात्विक आहार व भोजन करने वाला हो।
26-   तन व मन से संयमित हो।
27-   प्रक्रति के नियमो को समझकर पालन करता हो। ईस्वर में विस्वास रखता हो व प्रतिदिन ध्यान करता हो।

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